लेखनी प्रतियोगिता -17-Jun-2022सामाजिक बेडियाँ अथवा संस्कार
आरजू की एक महीने पहले ही शादी हुई थी। जब वह शादी होकर पहली बार ससुराल आई थी तब उसकी माँ ने उसे समझाते हुए कहा था कि बेटी ससुराल में अपने से रिश्ते में बडो़ की इज्जत करना। सिर पर पल्लू या चुन्नी रखना मत भूलना। सबसे पहले घर के सभी सदस्यौ को खाना देना। तू सबसे बाद में खाना।
अब तुझे सुबह जल्दी जागना होगा। यहाँ की तरह दस बजे तक सोना बन्द है। किसी से भी ऊँची आवाज में बात मत करना। सास ससुर की सेवा करना अब वह ही तेरे माता पिता है। उनकी सेवा करना और उनकी बातें मानना तेरा फर्ज है।
और न जाने कितनी बातें समझाई थी। तब आरजू अपनी माँ की बाते सुनरही थी और सोच रही थी कि यह सब बाते औरतौ पर ही लागूँ होती है और सभी औरतौ पर भी नही लागू होती यह बंदिशें केवल बहुऔ पर ही लागू होती है यह सभी बातें बेटियौ पर लागू नही होती। क्यौकि आरजू जब तक बेटी थी तब तक उस पर कोई बंदिश नही थी।
वह अपनी मर्जी से जागती थी सबसे पहले खाती थी जोर जोर से बातें करती थी । तब उसे किसी ने कभी भी नही टोका था। वह अपनी मर्जी के कपडे़ पहनती थी। अब बहू बनते ही सब बंदिशें लग गयी थी।
एक महीने तक आरजू ने ससुराल में भी स्वतन्त्र जीवन जीया था क्यौकि तबतक वह नयी बहू जो थी। एक महीने बाद उसकी सास ने उसे अपने यहाँ के कायदे और नियम सिखाने शुरू कर दिये। अब उसे ससुराल काँटौ से भरी सेज लगने लगी क्योकि आब वह पिंजरे का पंक्षी बनगयी थी जिसके पंख काट दिये गये हो।
उसकी शिकायत सुनने वाला भी कोई नहीं था पति रमन रात को आता और अपनी काम बासना पूरी करने के बाद सोजाता। वह अपने अन्दर की पीडा़ किसे बताती । उसे अपनी माँ का तो पता ही था कि वह एक भारतीय नारी है क्यौकि उन्हौने तो ससुराल आने से पहले जो समझाया था सब कुछ बैसा ही हो रहा था इसीलिए उनसे कहने का कोई फायदा ही नही था।
जब आरजू अपनी सास की बंदिसौ से आधिक परेशान थी तब उसने अपने पति से झूठ बोला कि उसकी माँ की तबियत खराब है इसलिए उसे देखने जाना है।
रमन ने अपनी माँ से आरजू को उसके मायके माँ को देखने की परमीशन ली ओर उसे मायके छोड़ आया। आरजू अपनी माँ से गले लगकर खूब रोयी और बोली," मम्मी आपने मुझे कहाँ कुए में धकेल दिया। वहाँ कोई यह भी नहीं पूछता है कि बहू तूने आज कुछ खाया है अथवा नहीं। मै वहाँ नही जाऊँगी। "
आरजू की माँ समझदार थी उसने दुनिया देखी थी। वह जानती थी कि अभी घाव ताजा है इसे दो चार दिन रूकने दो इसे स्वयं ही समझ जायेगी।
चार दिन बाद उसकी मम्मी ने उसे समझाया ," देख आरजू अब तू मुझे अपनी परेशानी बता तू क्या चाहती है हम इन बंदिशौ के कारण अपनी जिम्मेदारियौ से दूर कैसे भाग सकते है। तू शान्त मन से सोच जिन्है हम बंदिश का नाम देते है वह हमारे संस्कार है। सुबह जल्दी जागना सिर पर पल्लू रखना अपने बडौ़ का आदर करना अपने परिवार को साथ लेकर चलना यह सब हमारे संस्कार है।"
परन्तु ये संस्कार औरत पर ही क्यौ लागू होते है। पुरुष पर क्यौ नहीं ? वह भी तो इस समाज का हिस्सा है। : आरजू ने प्रश्न किया।
"हाँ तेरी इस बात से सहमत हूँ पुरुषौ को भी इनमें अपना योगदान देना चाहिए। घर को जोड़ना है अथवा तोड़ना है यह घर की लक्ष्मी के हाथौ में है। किसी भी बस्तु को तोड़ने में देर नही लगती परन्तु तोडे़ हुए को जोड़ने में देर भी लगती है और जोड़ने पर गाँठ लगजाती है। जो बहुत दुःख देती है। अब तेरी मर्जी है। जैसा अच्छा लगे बैसा करो।" उसकी माँ ने उसे प्यार से समझाया।
उसकी माँ ने आगे बोला," बेटी जिनको तू बंदिश व बेडि़या समझ रही है वह हमारे पूर्वजौ की बनाई हुई रीति व रिवाज है हमारी संस्कृति की धरोहर है। यह हमारी पहचान है। इनको जो नही मानता हम उनसे भी कुछ नही कहते है। बेटी की जो इज्जत उसकी ससुराल में ही होती है वह मायके में कभी नही हो सकती है जब बेटी ससुराल से आती है तब भैया भाभी उसका सम्मान करते है वही बेटी जब ससुराल छोड़ मायके में आजाती है तब उसकी कोई इज्जत नहीं करता है। "
आरजू सब समझ चुकी थी वह अपने मायके में कुछ दिन ही रुकी और फिर से अपनी ससुराल में उन बेडि़यौ को ही अपने संस्कार मान लिया। और अपना फर्ज ईमानदारी से पूरा करने लगी।
अब आरजू को किसी से कोई शिकायत नहीं थी।
दैनिक प्रतियोगिता हेतु रचना।
नरेश शर्मा " पचौरी "
17/06/2022
Kusam Sharma
19-Jun-2022 08:53 AM
Very nice
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Pallavi
18-Jun-2022 09:34 PM
Nice
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Seema Priyadarshini sahay
18-Jun-2022 06:00 PM
बेहतरीन
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